Thursday, April 21, 2011

जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं..


आज दिमाग नें फिर कचोटा और एक और कृति बाहर आई .. इस कृति का प्रादुर्भाव हमारे आस पास से हुआ है.. ये कविता ना होकर जीवन परिचय ज्यादा है.. इस कविता को लिखने के पीछे का उद्देश्य सभी हरामखोरो को धन्यवाद देना है जिन्होने मेरे अंतर मन को झगझोरा..


जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं
आंख रगड़ूं, हाथ मलूं, और जांघो को खुजलाउं
उस थाली में छेद मैं करदू जिसमें खाना खाउं
जी करता है मै भी एक हरामखोर हो जाउं


ये भी खाउं, वो भी खाउं सबको मैं गरियाउं
काम छोड़ कर सब करू मैं फोकट तनख्वाह पाउं
जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं


दिन भर सोउं, गाने गाउं और बाल सहलाउं
मेहनत कतरे भर की न करू बस मजे उड़ाउं
जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं


कामचोर सा पड़ा रहूं हरकत नहीं दिखाउं
किसी से सर, किसी से हाथ और किसी से पांव दबवाउं
जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं


मस्त रहूं मदमस्त रहूं मै बेशर्मी दिखलाउं
इज्जत नहीं करू किसी की खुद में ही खो जाउं
जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं


स्वाभिमान को ताक पे रख दूं
नंगा डोल बजाउं
जी करता है मैं भी एक हरामखोर हो जाउं


राहुल देव अवस्थी "क्रोधी"

1 comment:

  1. हरामखोर होने के लिए चाटुकारिस्तान की दुनिया में चापलूसी का हिमालय खड़ा करना पड़ेगा....साहब।तब जाकर बैठे बैठे खाने में कोई तोहमत नहीं लगाएगा। वैसे हरामखोरी में सबसे ज्यादा "ईमानदारी" की जरूरत होती है। वरना इस हरामखोरी की पाखंड को लोग "परंपरा" यूं ही नहीं बनाते और ना आप जैसे लोग इसकी पूजा करते।वैसे आपने हिम्मत की है....तो एक बात याद रखिए...हरामखोरी, जिंदगी भर महसूस होने वाली एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज दिन में चीन बार चापलूसी से होती है...तो सोच क्या रहे हैं.....

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