Saturday, October 30, 2010

अपनी ढ़पली अपना राग.....





फुर्सत में हूं इसलिये आज अलग अलग ढ़पलियो के राग सुने.. कोई तेज था कोई धीमा कोई सुर मे था कोई बेसुरा और कोई तो ऐसा कि सुन लो तो कान पक जाऐ पर एक बात सब ढ़पलियो में एक सी थी सब खुदको श्रेष्ठतम वाद्ययंत्रो में से एक मान रहे थे... ये रोज की बात है कि न चाहते हुए भी ये राग सुनने और ईन्जाय करने पड़ते है.. लय ताल और गति रोज पकड़ नही पाता आज ध्यान दिया तो सुर, हरकते, मुर्किये और उतार चढाव सब साफ साफ सुनाई दिये.. आज क्रोध नही मजा आ रहा है जान कर कि ये राग किसी भी ढ़पली से रोके नही जा सकते.. खुशी है कि चलो अब जतन तो नही करने पड़ेगे.. और गौर किया तो पाया, अरे! किसी भी ढपली के कान नही थे.. किसी के राग से किसी को मतलब नही था मदमस्त थाप पे थाप, बीट पे बीट... पर एक शान्त थी सुन रही थी कान लगा कर.. सबकी रागो पर गौर कर रही थी.. बस एक पल में समझ आ गया कि सबसे मधुर और सबसे ताकतवर राग उसी की थी ... बस फिर मैने भी अपनी ढपली की थाप कम कर दी.. और कान का मैल निकाला.. दरअसल तकलीफ दूसरो की राग से ज्यादा खुद की राग से थी.. अब शान्त हूं लिख रहा हूं.... 

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